Ramsnehi Sampraday

ग्रन्थ मन खण्डन

अथ ग्रन्थ मन खण्डन लिख्यते

स्तुति :

रमतीत राम गुरू देवजी , पुनि तिहुँकाल के संत ।

जिनकूं रामचरण की, वंदन बार अनंत ॥१॥

दोहा :

अलख निरंजन बीनऊं , लागूं  सतगुरु पाँय ।

मन खण्डन की जुक्ति होइ, सो मोही दोऊ बताय ॥१॥ 

मन तन पर असवार है, गुण इन्द्री सब साथ ।

फिरे सवादां बस भयो , क्यूं करि आवै हाथ ॥२॥ 

-: चौपाई :-

सप्त धातु काया अस्थान । चेतन राजा मन परधान ॥

मन के तीन अपर्वल जोध । तामें दोय न मानै बोध ॥१॥

पाँच पयादा मन की लार ।  पुन पाँचा पंच पंच आगार ॥

अपणा अपणा चाव्है भोग । ज्यूं ज्यूं नगरी  बाधै रोग ॥२॥

तब नरपति इक मतो बिचारयो । मन खंडन निज मन विस्तारियो ॥

मन की चोरी निज मन पावे  । नरपति आगे सब गुदरावै ॥३॥

नरपति को निज सदा हजूरी  । परकृति मन मुख बाधै  धूरी ॥

मैं तो हुकम राय को करिहों । तेरी चोरी कागद धरिहों ॥४॥

तेरे भोग राय दुख पावै । बार बार गर्भ  माहीं आवै ॥ 

चाकर चोर  धणी नहीं सुक्ख । जन्म मरण संग भुगते दुख ॥५॥

 निज मन लागो मन की लार । संग न छाँड़े एक लगार ॥

मेरे धणी बिदा कियो मोहि ।  चोरी करता पकडूं तोहि ॥६॥

तेरा पाँच पयादा मारू । रज तम दोई टूक कर डारू ॥

सात्विक कूं मैं लेहूँ फेर । काढूँ नगर पचीसूं हैर ॥७॥

जब परकृति मन बाग उठावै । ज्ञान खड़ग ले निजमन ध्यावै ॥

मनवो जाय आकासां भँवै  । निज मन हते करि नीचो  दवै ॥८॥

मनवो नीची दशा बिचारै  । निज मन पकड़ गगन की धारै ॥

मनवो करै उठन का दाव ।  निजमन काठा रोपे पाँव ॥९॥

मनवो मुख भोगां में करें । निजमन उलट अफूटो  धरें ॥

विषय वासना मनका भोग । निजमन इनको जाणे रोग ॥१०॥

दोहा:

सुण प्रकृति निज मन कहै । मुझ शिर नरपति हाथ ॥

तोहि चरणतल चूर हूँ । पकडूँ तेरो साथ ॥१॥

-: चौपाई :-

जब मन खाटा  मीठा चाव्है । तब  निज फीका भोजन पावै ॥

मनवो ऊँचा नेतर न्हाले  ।  तब निज चख का पड़दा  ढालै ॥१॥

मनवो नासा चाव्है  गंध । निजमन सब देखे दुर्गन्ध ॥

राग रंग श्रवणा कर भावै । तब निज हरि का गुण संभलावै ॥२॥

स्पर्श इंद्री चाव्है भोग । निजमन गहे शील का जोग ॥

कर सूं  मन सब काज संवारै  । निजमन आरम्भ सकल निवारे ॥३॥

चंचल होंइ चरणा सूं  चालै । निज पंगो  होई क भून ही हालै ॥

छादन त्वचा सुहाया मांगै  । निजमन सबही बिस्तर त्यागै ॥४॥

तब मन पलंग पथरना  हेरे  । निज भूपर आसण कर फेरे ॥

मनवो  वास महल में करे । निजमन आसन चौड़े धरे ॥५॥

मनवो बस्ती सूँ  मन लावै  । निजमन ले  बन खण्ड में जावै ॥

मनवो शत्रु मिले बोई भाखै । निजमन दोऊ समकर राखै ॥६॥

मनवो करे मित्र से मोह । जबही निजमन ठाणै द्रोह ॥

मनवो बैर शत्रु सूं करे । तासूं निजमन हित विस्तरे ॥७॥

 मनवो माया कू उपजावै  । निजमन दृढ़ बैराग उपावै ॥

मनवो सत्संगति सूं भागै  । निजमन उलट चौगुणों लागै ॥८॥ 

मनवो राम भजन सूं हारे । शिर में निजमन मुदगर मारे ॥

मनवो आड़ो आसन भावै । निजमन उलट खडो ठहरावै ॥९॥

ज्यूँ ज्यूँ मनवो ओल्हा हेरे । जहाँ जहाँ निजमन जाइ घेरे ॥

कहूँ न मन को लागै दाव । निजमन को छाती पर पाँव  ॥१०॥

निजमन है नरपति को दास । प्रकृति मन को नहिं विश्वास ॥

जो प्रकृति मन कै  चलै सुभाय । तो अनंत जूणि में गोता खाय ॥११॥

जीव ब्रहा निज एको करै । चंचल मन निहचल में धरें ॥

ऐसे मन कूं  खण्डो  भाई । यह शीख सतगुरु सूँ पाई ॥१२॥

मन खंडन का यह उपाव । और न कोई दूजा दाव ॥

मन कै मतै कबहु नहीं चालै । मनकूँ उलट अफूटो पाले ॥१३॥

सब जीवाँ कू मन भरमावै । मन के संग दुख सुख कूँ पावै ॥ 

सतगुरु शब्दाँ  पकड़े मन कूँ । रामचरण परम सुख हैं जिनकूँ ॥१४॥

मन का मारया  जो नर मरै । लख चौरासी घट वे धरै ॥

मन कूँ मार मरेगा कोई । परम धाम में बासा होई ॥१५॥

दोहा:

मन खंडै रामै भजै , तजै जगत गृह कूप ।

रामचरण तब परसिए आतम शुद्ध स्वरुप ॥१॥

सोरठा:

आतम कूँ नहीं व्याधि, व्याधि रोग मन मानिए ।

जिन ये तजी उपाधि, शुद्ध स्वरुप ते जाणिए ॥१॥

इति ग्रन्थ मनखण्डन सम्पूर्ण । 

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